जाति व्यवस्था एक विसंगत सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटना है जो भारत में कई सदियों से मौजूद है। यह एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है जो लोगों को उनकी जन्म, व्यवसाय और अन्य तत्वों के आधार पर अलग-अलग सामाजिक वर्गों में बांटती है। जाति व्यवस्था के बारे में बहुत से लोगों को विवाद और उलझन होती है और उन्हें इसे एक भेदभाव और सामाजिक असमानता की एक रूप मानते हुए देखते हैं।

जाति व्यवस्था के उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है, लेकिन मान्यता है कि यह वैदिक काल में उत्पन्न हुआ था। यह एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था थी जिसमें लोगों को मौत को हांथ लगाने और अस्वच्छ काम करने से जुड़े व्यवसायों में बांटा गया था। इस व्यवस्था में लोगों को उनके जन्म के आधार पर एक जाति दी जाती थी जो उनकी सामाजिक स्थिति को और उनके काम के प्रकार को निर्धारित करती थी।

जाति व्यवस्था का एक मुख्य विवाद उसके तंउपरांत अधिकार और सुविधाओं का भी असमान वितरण शुरू हो गया था जो समाज के विभिन्न वर्गों को दूसरे वर्गों से अलग करता था। इसी प्रकार, शिक्षा और रोजगार के भी असमान वितरण ने भी समाज में असमानता बढ़ा दी।

वर्तमान समय में जाति व्यवस्था ने भारतीय समाज को एक बड़ी चुनौती दी है और सामाजिक असमानता को बढ़ावा दिया है। इसके बावजूद, भारत के कुछ राज्यों में जाति आधारित आरक्षण और अन्य सुविधाओं का वितरण जारी है।

इसलिए, जाति व्यवस्था के बारे में विवाद जारी रहता है। वहीं, भारतीय संविधान में जाति आधारित भेदभाव को अनुच्छेद 15 में असंगत घोषित किया गया है। इसके अलावा, भारत सरकार ने अनेक योजनाएं और कदम उठाए हैं जिनका मुख्य उद्देश्य समाज में समानता और असमानता कम करना है।

क्या जाति प्रथा के पीछे कोई खून का रिश्ता है?

नहीं, जाति व्यवस्था के पीछे किसी भी रक्त संबंध का कोई ताल्लुक नहीं होता है। जाति जन्म द्वारा निर्धारित की जाती है, और किसी की जाति उनके माता-पिता की जाति द्वारा निर्धारित की जाती है। इसका अर्थ है कि यदि कोई किसी निम्न वर्ग के माता-पिता से पैदा हुआ हो, तो वह भी उस निम्न वर्ग का हिस्सा माना जाएगा।

जाति की धारणा “शुद्धता” और “दूषितता” के अवधारणा पर आधारित है। कुछ जातियों को “शुद्ध” माना जाता था और समाज में उच्च स्थान प्रदान किया गया, जबकि दूसरों को “दूषित” माना जाता था और निम्न स्तर प्रदान किया गया। शुद्धता और दूषितता के इस अवधारणा को व्यवसाय से जुड़ा था, जिसमें कुछ जातियां विशिष्ट प्रकार के काम करती थीं।

हालांकि, यह धारणा कि शुद्धता और दूषितता की अवधारणा वैज्ञानिक या तार्किक तर्क पर आधारित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक रचना है जो पीढ़ियों के द्वारा अटल रूप से बरकरार रखी गई है। इसे समाज की अंतरंग मुद्दों और राजनीतिक दलों के हितों के लिए उपयोग किया जाता है। इस विषय में विभिन्न विचार हैं और अनेक विवाद हुए हैं, लेकिन अंततः इस धारणा के अनुसार जाति का धार्मिक अधिकार उसके जन्माधान के आधार पर निर्धारित होता है।

इस धारणा के खिलाफ समाज में अनेक आंदोलन हुए हैं, जिसमें जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई है। अधिकांश लोगों का मानना है कि जाति व्यवस्था को समाप्त करना चाहिए और सभी लोगों को समान अवसरों की पहुंच होनी चाहिए।

जाति व्यवस्था में शुद्धता और अशुद्धता का आधार क्या है?

जाति व्यवस्था में शुद्धता और अशुद्धता का आधार यह विचार है कि कुछ व्यवसायों या गतिविधियों को “शुद्ध” माना जाता है और अन्य को “अशुद्ध” माना जाता है। उदाहरण के लिए, पुजारी और विद्वानों को परंपरागत रूप से सर्वोच्च जाति में माना जाता था क्योंकि वे धार्मिक अनुष्ठानों का अध्ययन और प्रदर्शन करने जैसी “शुद्ध” गतिविधियों में लगे हुए थे। दूसरी ओर, शारीरिक श्रम और चमड़े के काम जैसे पेशों को “अशुद्ध” माना जाता था और वे निचली जातियों से जुड़े होते थे।

शुद्धता और अशुद्धता का यह विचार जाति व्यवस्था में गहराई से समाया हुआ है और इसने कई लोगों के लिए भेदभाव और असमानता को जन्म दिया है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह प्रणाली किसी वैज्ञानिक या तर्कसंगत तर्क पर आधारित नहीं है, बल्कि सदियों से चली आ रही सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं पर आधारित है।